भारत में वीआईपी संस्कृति देश के लोकतंत्र पर एक धब्बा है।



                  (प्रवीण मिश्रा राल्ही)
                     प्रधान-संपादक 
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अनेक बार आपके साथ ऐसा हुआ होगा। आप जल्दी में अपने गंतव्य पर पहुंचना चाहते हैं, लेकिन चौराहे पर ट्रैफिक रुका हुआ है, क्योंकि किसी वीआईपी को उधर से गुजरना है। आप किसी बड़े मंदिर में दर्शन के लिए लाइन में लगे हैं, तभी नेताजी अपने चमचों के साथ आगे बढ़ते चले जाते हैं, बिना रोक टोक के।

          
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भारत की व्यापक वीआईपी संस्कृति देश की अलोकतांत्रिक और सामंती मानसिकता की एक कठोर याद दिलाती है। यह अभिजात्य घटना इस धारणा को कायम रखती है कि कुछ व्यक्ति दूसरों की तुलना में अधिक ताकतवर हैं, जो कानून के शासन और समाजवादी मूल्यों को नकारते हैं। यह वर्ग पूर्वाग्रह को मजबूत करता है और भेदभाव व संपन्न तथा वंचितों के बीच मतभेदों को बढ़ाता है।


अभिजात्य संस्कृति न केवल आंखों में खटकती है, बल्कि प्रणालीगत असमानता के खिलाफ गहरी नाराजगी का प्रतिबिंब भी है। राजनेता और नौकरशाह विशेषाधिकार प्राप्त व्यवहार का आनंद लेते हैं। कारों के काफिले और हमारे लिए कष्टप्रद सुरक्षा से घिरे रहते हैं, जबकि आम लोगों को छोटा और महत्वहीन महसूस कराया जाता है।


देश की सरकारों को अब सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समीकरणों को बदलने के लिए समानता की पहल शुरू करने का समय आ गया है। भारत को एक अधिक मानवीय और समतावादी समाज की आवश्यकता है, जो सभी नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करे, न कि केवल कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का।


भारत में वीआईपी संस्कृति की जड़ें औपनिवेशिक युग से हैं। जब अंग्रेजों ने अपने हितों की सेवा के लिए अभिजातों का एक नया वर्ग बनाया था। स्वतंत्रता के बाद भी यह संस्कृति जारी रही, जिसमें नए शासक वर्ग ने अपने औपनिवेशिक पूर्ववर्तियों के समान ही प्रथाओं और दृष्टिकोणों को जारी रखा।


राजनेताओं और नौकरशाहों के लिए व्यापक सुरक्षा व्यवस्था वीआईपी संस्कृति का एक और पहलू है। जबकि, सुरक्षा उन लोगों के लिए आवश्यक है जो वास्तविक खतरों का सामना करते हैं। लेकिन, इसे अक्सर उन लोगों द्वारा स्टेटस सिंबल के रूप में उपयोग किया जाता है, जिन्हें इसकी वाकई जरूरत नहीं है।


वीआईपी संस्कृति का सार्वजनिक सेवाओं पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। वीआईपी की ज़रूरतें और हित आम लोगों की ज़रूरतों और हितों से ज़्यादा अहमियत रखते प्रतीत होते हैं। इससे असमानता बढ़ती है और संस्थाओं में लोगों का भरोसा कम होता है।


वीआईपी संस्कृति को खत्म करने के लिए, अंतर्निहित सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करना ज़रूरी है। इसके लिए समावेशी विकास को बढ़ावा देने, संसाधनों और अवसरों तक समान पहुंच सुनिश्चित करने और धन व शक्ति का अधिक न्यायसंगत वितरण करने के लिए एक ठोस प्रयास की आवश्यकता है।


सरकार को वीआईपी संस्कृति के प्रतीकों और प्रथाओं को खत्म करने और यह सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए कि सार्वजनिक सेवाएं सभी नागरिकों के लिए सुलभ और उत्तरदायी हों, तथा पारदर्शिता, जवाबदेही व कानून के शासन के लिए प्रतिबद्ध हों।


भारत में वीआईपी संस्कृति देश के लोकतंत्र पर एक धब्बा है। यह समानता और निष्पक्षता के सिद्धांतों को कमज़ोर करती है, सामाजिक व आर्थिक असमानताओं को बढ़ाती है, तथा आम लोगों में अलगाव और आक्रोश की भावना पैदा करती है। अधिक समावेशी और समतावादी समाज बनाने के लिए, वीआईपी संस्कृति को खत्म करना और समानता और सामाजिक न्याय की संस्कृति को बढ़ावा देना ज़रूरी है।

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